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उ॒तो पति॒र्य उ॒च्यते॑ कृष्टी॒नामेक॒ इद्व॒शी । न॒मो॒वृ॒धैर॑व॒स्युभि॑: सु॒ते र॑ण ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uto patir ya ucyate kṛṣṭīnām eka id vaśī | namovṛdhair avasyubhiḥ sute raṇa ||

पद पाठ

उ॒तो इति॑ । पतिः॑ । यः । उ॒च्यते॑ । कृ॒ष्टी॒नाम् । एकः॑ । इत् । व॒शी । न॒मः॒ऽवृ॒धैः । अ॒व॒स्युऽभिः॑ । सु॒ते । र॒ण॒ ॥ ८.१३.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

प्रजापति भी वही है, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) और (यः) जो इन्द्र (वशी) सर्व प्राणियों को अपने वश में करनेवाला है और जो (कृष्टीनाम्) मनुष्यों का (एकः+इत्) एक ही (पतिः) पालक स्वामी (उच्यते) कहलाता है। कौन उसको एक पति कहते हैं, इस आकाङ्क्षा में कहते हैं (नमोवृधैः) जो ईश्वर को नमस्कार और पूजा करके इस जगत् में बढ़ते हैं अर्थात् ईश्वर के भक्त और जो (अवस्युभिः) सर्व प्राणियों की रक्षा होवे, ऐसी कामनावाले विद्वान् हैं, वे परमात्मा को एक अद्वितीय पति कहते हैं। अतः हे इन्द्र तू (सुते) हमारे सम्पादित गृह अपत्यादि वस्तु में अथवा शुभकर्म में (रण) रत हो। अथवा हे स्तोता (सुते) प्रत्येक शुभकर्म में (रण) उसी की स्तुति करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! परमात्मा सर्वपति है, ऐसा जानकर उसका गान करो ॥९॥
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आर्यमुनि

अब कल्याणार्थ परमात्मा की उपासना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) और (यः) जो परमात्मा (वशी) सबको वश में रखनेवाला (कृष्टीनाम्) सब प्रजाओं का (एकः, इत्, पतिः) एक ही पालक (उच्यते) कहा जाता है, हे उपासक (नमोवृधैः, अवस्युभिः) रक्षा को चाहनेवाले स्तोताओं द्वारा (सुते) साक्षात्कार करने पर (रण) हे उपासक ! उसकी स्तुति करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे उपासक जनो ! तुम स्तोताओं द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना में प्रवृत्त होओ, क्योंकि एकमात्र परमात्मा ही सबका रक्षक, सबको वश में रखनेवाला और एक वही सब प्रजाओं का पालक है ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा

प्रजापतिरपि स एवास्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - उतो=अपि च। यः=इन्द्रः। वशी=सर्वप्राणिनां वशकर्ता। एक इद्=एक एव नान्यः। कृष्टीनाम्=मनुष्याणाम्। पतिः=पालयिता स्वामीत्युच्यते। कैः। नमोवृधैः=परमात्मानं नमस्कृत्य पूजयित्वा ये जगति वर्धन्ते ते नमोवृधास्तैर्नमोवृधैरीश्वरभक्तैः। पुनः। अवस्युभिः=सर्वेषां प्राणिनामवो रक्षणं भवेदिति ये सर्वदा कामयन्ते तेऽवस्यवस्तैः। अतः हे इन्द्र ! सुते=अस्माकं गृहापत्यादिवस्तुनि अथवा शुभकर्मणि। रण=रमस्व। यद्वा। हे स्तोतः। सुते=यज्ञे। तमेव रण=स्तुहि। रणतिः शब्दार्थः ॥९॥
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आर्यमुनि

सम्प्रति परमात्मोपासना वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) अथवा (वशी) सर्ववशः (यः) यः परमात्मा (कृष्टीनाम्) प्रजानाम् (एकः, इत्, पतिः) एक एव पालकः (उच्यते) कथ्यते तम् (नमोवृधैः, अवस्युभिः) स्तोतृभिः रक्षामिच्छद्भिः (सुते) साक्षात्कृते सति (रण) हे उपासक ! स्तुहि ॥९॥